Thursday, 29 September 2011

कवियाया सा

उस थकी दुपहरी में मैंने देखा, 
सूरज को कुछ मुरझाया सा
अजीब सी उस नीरवता में 
हवाओं को भरमाया सा 




चांदी से चमकते पत्तों को
झूलते हुए कुछ घबराया सा 
वक्त को भी मैंने पाया 
उस दिन कुछ अलसाया सा 

फिर किसी पक्षी का स्वर उठा
जैसे कवि कोई पगलाया सा 
सुनकर मानो सूरज चमक उठा
करके जग को चौंधियाया सा 


हवाएँ बह उठीं जैसे कोई 
हाथी चले मदमाया सा 
पत्तों में भी शोर उठा 
पाकर सबको मनभाया सा 

वक्त भी चल पद जैसे 
किसी नदी का पानी 
कहीं धीमा कहीं बल्खाया  सा 
मैंने भी तब खुद को पाया
थोडा थोडा कवियाया सा ..

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