सांझ पहर, धुंधलके से पहले
आसमान जब हो रहा हो गुलाबी
रविवार की उस संध्या में
मैं बैठा हूँ अपनी बालकनी में
देखता हूँ सामने बच्चों को खेलते
दूर कहीं कोलाहल होता है
और सामने छत की मुंडेर पे
आती है चिड़ियों की चहचहाहट
ऐसे में वो आती है मुझसे मिलने
एक अकेली चिडियाँ, कितनी सुन्दर
इधर उधर कुछ बिखड़े दानों को
चोंच में दबाए वो हो जाती है फुर्र
पल भर में दूर हो जाती है तन्हाई
देखता हूँ फिर मैं उसे
पेड़ों के झुरमुट में, पत्तों के पीछे
एक सहज सम्मोहन है जहाँ में
सोचता हूँ मैं अभी
क्यूँ बेखबर था इस आनंद से अब तक
जब शाम रोज ही होती है....
...शायद मुझे फुरसत ही कम होती है.
आसमान जब हो रहा हो गुलाबी
रविवार की उस संध्या में
मैं बैठा हूँ अपनी बालकनी में
देखता हूँ सामने बच्चों को खेलते
दूर कहीं कोलाहल होता है
और सामने छत की मुंडेर पे
आती है चिड़ियों की चहचहाहट
ऐसे में वो आती है मुझसे मिलने
एक अकेली चिडियाँ, कितनी सुन्दर
इधर उधर कुछ बिखड़े दानों को
चोंच में दबाए वो हो जाती है फुर्र
पल भर में दूर हो जाती है तन्हाई
देखता हूँ फिर मैं उसे
पेड़ों के झुरमुट में, पत्तों के पीछे
एक सहज सम्मोहन है जहाँ में
सोचता हूँ मैं अभी
क्यूँ बेखबर था इस आनंद से अब तक
जब शाम रोज ही होती है....
...शायद मुझे फुरसत ही कम होती है.
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