Wednesday, 13 June 2012

May be i am tired.

जिंदगी कहाँ जा रही है मेरी 
मुझे जब रास्ते का पता ही नहीं.
मंजिल ही रास्ता है या रास्ता ही मंजिल
कोई बता दे मुझे .


भटका हुआ मुसाफिर हूँ अब,
राह नयी दिखा दे मुझे. 
पक्की सड़कें अब भाती नहीं मुझे,
जंगल का पता कोई दे दे मुझे.


मैं यूँ ही चला था 
मेरे जीवन में ध्रुवतारा कहाँ था.
संभल के चल सकता था
मगर सहारा कहाँ था.


हमसफ़र नहीं जीवन में कोई भी
अकेला भी कहाँ तक चलूँ मैं?
पहिये का सहारा चाहिए अब
दो पांव से कब तक चलूँ मैं.


 दास्ताँ अपनी अलग है, 
तुम से कहाँ तक कहूँ मैं,
दिल पत्थर बन गया..
दर्द कब तक सहूँ मैं.......